मानवता
बैठी थी मैं बहुत देर तक,
जीवन की तान सुनाने को।
आँखें खुली तो पता चला,
जीवन का राग विरानों से।
हम सीखें मानव बनना,
पर, मानवता कहीं तो खोई है।
दीपक की लौ कोई ला दो,
घन अंधकार दोपहरी है।
हम चलें विश्व जीतने
अडिग कदम की लहरी है।
कूच करती जीवन सारी,
पर बना न कोई प्रहरी है।
सीमा बंधन बंधती जाती,
दिल की तारें थमती जाती।
रक्त भी लाल गहरी है
फिर धरा पर कैसा कोहरा है।
धरती हो गई लाल रक्त सी
इसकी खोई है हरियाली।
आज हर मुल्क में हो रही
जंगों की तैयारी
एक दूसरे को मार-मार के
खुद को विजित करे हैं वे।
भूमि के छोटे टुकड़े पर
जीवन की तान गड़े है वे।
चारों तरफ गोला बारूद की,
लम्बी आग लगी है जो।
छीना बचपन, व्यर्थ जवानी
मसूमों पर कहर जड़े है वे।
आज मानवता कहीं सिमटी है,
अपनी दर्श दिखाने को।
कोई दर्पण ला दो यारों,
नीज विश्व रूप दिखने को ।
मुझे न चाहिए विश्व पताका,
निज मान-अभिमान बढ़ाने को
सीमा के कूचों को छोड़ो,
निज देश रूप बनाने को।
विश्व की हरएक मानव में
जब मानवता जागेगी।
फिर क्या किसी देश की सीमा,
लहु की आँधी पायेगी।
लंबी खिंची कटीली तारों,
के बीच ना कोई गम होगा।
इस पार न लहू में मेरा सीना,
उस पार न तेरा गम होगा।
बहुत बने हम युद्ध के योद्धा,
अडिग मार्ग पर जाने को।
एक-दूजे से लड़ते रहे,
निज देश अभिमान बढ़ाने को।
अब थोड़ा तो समझो यारों,
मैं भी थोड़ा थमता हूँ।
चलो गलबाँहें डाल-डाल कर
माँ की लोरी गाने को।
मेरी मृत्यु तेरी मृत्यु
मृत्यु का खेल कहाँ तक है।
हृदय रक्त से सृजित हुए हो,
क्या लहु परवान चढ़ाने को।
इस धरती गर्भ से निकले
मैं और तुम एक साँचा है।
साँचों को स्तुप बना लें,
हमको किसने बाँटा है।
पंचमणी कुमारी
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