(तुम! रूपसी, नभ से उतरी)
उर्वशी का रूप श्रृंगार लिये
श्रृद्धा के यौवन से भरी।
ऊषा काल की प्रथम बेला में,
तुम! रूपसी नभ से उतरी।
मुख चमके सूरज के समान
काली भौहे, तिरछे नयना,
कामदेव के लगते बाण।
अधरों पे लाली मुस्कान भरी
तुम! रूपसी नभ से उतरी।
सावन की बदली का लेकर भेष
काली घटा से लहराये केश।
मयूरी सी जब गर्दन हिलती,
पथिक भूलें देश परदेश।
शब्दों में तेरे, फूलों की झडी
तुम! रूपसी नभ से उतरी।
कर जैसे वीणा के तार
सरगम बजती, गूंजे झनकार।
कटि लहराये बन सर्पिणी,
बलखाये जैसे नदियां की धार।
पग में घुंघरू की तान बजी
तुम! रूपसी नभ से उतरी।
चन्दा को माथे पे सजाकर
तारों की मेंहदी है रचाई।
हरियाली की पहन घघरिया,
अम्बर की चुनरी है बनाई।
देवी हो! अप्सरा हो! या कोई परी!
ऊषा काल की प्रथम बेला में
तुम! रूपसी नभ से उतरी।
निधि “मानसिंह”
कैथल हरियाणा