बसता है भारत गांव में-वेद प्रकाश दिवाकर

बसता है भारत गांव में

अन्न जहां उगल रही है ,
खेतों और खलिहानो में ।
सोने जैसी रंगत देखो ,
मेहनत के उन दानों में ।
मस्त मगन है हर कोई ,
जीवन के पैमानों में ।

भारत , है ऐसी गांवों में ,
भारत , है ऐसी गांवों में ।।

बह रही है पवन सुहाने ,
शीतलता के भावों में ।
मिट जाती अंतस की पीड़ा ,
पीपल के उन छावों में ।
बह रही जीवन की नैय्या ,
सदियों से उन ठावों में ।

भारत , है ऐसी गांवों में ,
भारत , है ऐसी गांवों में ।।

धूल मिट्टी में खेलते हैं बच्चे ,
अल्हड़पन के भावों में ।
उछल रहे हैं मचल रहे हैं ,
उथली – उथली तालों में ।
भेद विभेद से परे है मन ,
प्रेम भरे मन ठावों में ।

भारत , है ऐसी गांवों में ,
भारत , है ऐसी गांवों में ।।

अमराई में आम पके हैं ,
ऊंचे – ऊंचे शाखाओं में ।
पत्थर मार तोड़ने की बाजी ,
होती है नव बालाओं में ।
बालापन की धमाचौकड़ी ,
मची रहती है गांवों में ।

भारत , है ऐसी गांवों में ,
भारत , है ऐसी गांवों में ।।

तीज त्योहार की खुशियां बांटे ,
मिलकर मंगल गानों में ।
हंसी – ठिठोली होती देखो ,
खट्टी – मीठी जुबानों में ।
रंग नई भरते यहां हैं ,
रिश्तों के पैमानों में ।

भारत , है ऐसी गांवों में ,
भारत , है ऐसी गांवों में ।।

एक दूजे के साथ खड़े हैं ,
कैसी भी जंजालों में ।
भाईचारा खिल रहे हैं ,
हृदय के बागानों में ।
बैर भरम को भूलकर सब ,
बैठते हैं चौपालों में ।

भारत , है ऐसी गांवों में ,
भारत , है ऐसी गांवों में।।

वेद प्रकाश दिवाकर ,शिक्षक
पासीद,सक्ती , छ. ग.
स्वरचित मौलिक रचना

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