‘ ओ नयन ‘ – सुजाता जी. नायक

‘ ओ नयन ‘

ओ नयन, तुम क्यों ऐसी हो ,
सदा यों क्यों छलकती रहती हो ll

मैंने पाया तुम्हारा कई रूप,
मन करता है तुम में जाने को डूब l
सबकुछ देखकर भी तुम कभी बनती हो अनजान,
क्यों नहीं कर पाती सब की पहचान ll

कभी तुम शर्माती हो, कभी तुम घबराती हो,
कभी तुम करती गुस्ताखी,कभी तुम दिखती मेहनती l
कभी तुम हो हंसाती,
तो कभी तुम दुःख को जताती ll

किसी में तुमने लिया रूप मुग्धता का,
किसी में तुमने लिया रूप चंचलता का l
किसी में बुद्धिमत्ता पायी,कपटियों में पाया कपट का रूप,
तुम में दिखता हमेशा सामनेवाले का रूप ll

बुराई को देखकर भी तुम अपने पलक मूंद लेती हो,
दुःख में तुम छलकती हो,खुशियों में भी छलकती हो l
कभी तुम अपने को पटकती हो,
क्यों नहीं कभी तुम सब को परख लेती हो ll

क्या तुम्हें भी सब लगता सही l
क्या तुम्हारा मन कभी पिघलता नहीं ll
ओ नयन, तुम क्यों ऐसी हो ,
सदा यों क्यों छलकती रहती हो ll

रचनाकार:-
सुजाता जी. नायक
सहायक प्राध्यापिका
केनरा कॉलेज
मंगलूर

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